Traditions and beliefs

परम्परा और मान्यताएं

परम्परा विरासत और मान्यताएं

नथुली या नथ

नथुली या नथ उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र की महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले आभूषणों में से एक है। इसे महिलाओं द्वारा नाक में पहना जाता है, जो पहाड़ी महिलाओं का आकर्षण है, जिसे कीमती माणिक और मोतियों से सजाया जाता है। इसे सुहाग का प्रतीक भी माना जाता है, इसलिए इसके बिना महिलाओं का श्रृंगार अधूरा है। यह उत्तराखंड को एक अलग ही पहचान दिलाता है नथ हर एक कुमाउँनी महिलाओ की शान होती है जिसे व्याह व्रत और अनेक तीज त्योहारों में पहना जाता है नथुली एक दुल्हन को चार चाँद लगा देती है ,हर दुल्हन अपनी शादी पर नथुली को पहनने के लिए काफी उत्सुक रहती है वैसे नथ दो तरह की होती है कुमाउनी नथ और टिहरी नथ मगर दोनों ही अपनी कलात्मक सुंदरता और पवित्रता के कारण लोगो इन्हे काफी पसंद करने लगे है , नथ को नवविवाहितों के दहेज में दिया जाता है आज के समय में बाजार में भिन्न प्रकार के अलग अलग डिज़ाइन नथ उपलब्ध है जिसमे प्रमुख डिज़ाइन मोर और पुष्प डिज़ाइन है

कुमाउनी नथ व टिहरी नथ

जब दुल्हन अपनी दुल्हन की पोशाक में सजती है तो सबसे प्रमुख आभूषण नथ उसे और भी खूबसूरत बना देती है। इस आभूषण को गोलाकार और चंद्रमा के आकार में बनाया जाता है। मगर टिहरी नथ कुमाउँनी नथ से थोड़ी मोटी होती है। नथ सोने का आभूषण है जिस पर कुछ पत्थर या फिर मोती के टुकड़े जड़ित होते हैं। नथ को शादी-व्याह , पूजा, पारिवारिक कार्यों और अन्य महत्वपूर्ण शुभ अवसरों के समय पहना जाता है। आजकल नवयुतियो में नथ पहनने का प्रचलन काफी बढ़ गया है , जो इसे एक नयी पहचान दिलवा रहा है कहते है कि नथ का वजन और नथ में जड़ित मोती की संख्या दुल्हन के परिवार की स्थिति से जुड़ी होती है। (सामान्य शब्दों में कहे तो यह परिवार की स्थिति दर्शाता है ) नथ से हमारी संस्कृति का स्पर्श जुड़ा हुआ है जिसे हमारे पुरखो की रीति रिवाज़ का पता चलता है पहले के तुलना में अब नथ का आकार और उसका रूप काफी बदल चुका है हमारी संस्कृति में नथ एक अलौकिक भूमिका रखता है , जो समय के साथ बदलता रहता है मगर आजकल युवतिया नथ का उपयोग करने लग गई है जो हमारे लिए गर्व की बात है नथ हमारी पारंपरिक परिधान को और सुशोभित और आकर्षक बना देती है

महत्व

नथुली एक ऐसी चीज़ है जिसे हम शादी में पहनना भूल नहीं सकते। हालाँकि, शैली और डिज़ाइन दोनों क्षेत्र में भिन्न हो सकते हैं लेकिन इसका आकर्षण एक ही है। शादी के दौरान दुल्हन की नथ या नोज़ रिंग मुख्य आकर्षण होता है। एक नथ में डाले गए मोती का वजन और संख्या दुल्हन के परिवार की स्थिति को दर्शाती है।(पुरानी मान्यता के अनुसार) नथुली एक वजनदार मोती जड़ित नाक की अंगूठी है जो दुल्हन को उसकी शादी के दिन विरासत में मिलती है। नथुली का वजन और उसके मोती की संख्या अक्सर दुल्हन के परिवार की स्थिति का एक संकेतक है।

(पुरानी मान्यता के अनुसार) गहनों का यह बड़ा टुकड़ा न केवल कुमाउ गढ़वाल की समृद्ध संस्कृति को दर्शाता है, बल्कि वर्तमान समय में फैशन का सूचक भी बन गया है, जो इसे पहनने के लिए बहुत से पहाड़ी और गैर-पहाड़ी दुल्हनों को भी आकर्षित करता है। नथुली शब्द श्नथश् से आया है, जो मूल रूप से नाक के छल्ले का एक पर्याय है। शायद राज्य का सबसे व्यापक रूप से पहना जाने वाला आभूषण, नथुली या महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली नाक की अंगूठी अपने कलात्मक डिजाइन के लिए तैयार है। हालाँकि इस आभूषण का डिज़ाइन क्षेत्र से भिन्न हो सकता है, लेकिन इसका करिश्मा अपरिवर्तित है। कुमाउनी-गढ़वाली लोगों द्वारा पालन की जाने वाली परंपराओं के अनुसार, दुल्हन का मामा उसकी शादी के दिन दुल्हन को नथ उपहार में देता है। यह गणेश पूजा के समय पहना जाता है जब दुल्हन शादी के सभी गहनों से सजी होती है। नथ पहनने के बाद, वर और वधू अपनी मन्नतें अग्नि के सामने लेते हैं जो मिलन का प्रतीक है।

पोची

मूल रूप से चूड़ियाँ होती हैं जो सोने से बनी होती हैं और गढ़वाल के साथ-साथ उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं। कुमाऊँ में, विवाहित महिलाओं के लिए पोची एक शुभ रत्न माना जाता है। इसे त्योहारों और महत्वपूर्ण पारिवारिक कार्यों के समय पहना जाता है। पोची को आम तौर पर 1 तोला या उससे अधिक में बनाया जाता है, जो दुल्हन के परिवार की स्थिति पर निर्भर करता है। लाल रंग के कपड़े का उपयोग आधार सामग्री के रूप में किया जाता है, जिस पर शुद्ध सोने के मोती जड़े होते हैं। इनको बनाने के लिए लाल रंग का उपयोग इसलिए किया जाता है, क्योंकि इसे विवाहित महिलाओं के लिए शुभ माना जाता है।

पोची का महत्व

सोने से बना यह आभूषण महिलाओं की कलाइयों का आकर्षण बढ़ता है। आज के दौर में भी इसका चलन और इसका आकर्षण कम नहीं हुआ है। वैसे आधुनिक दौर में इसका स्थान कंगन ने ले लिया है। परंतु शादी जैसे समारोह में इसे महिलाओं द्वारा अवश्य ही धारण किया जाता है। विशेष रूप से कुमाऊँ क्षेत्र की महिलाओं के फैशन से बिलकुल भी बहार नहीं हुई है। पोची को हाथ में पहना जाता है और यह दानेदार आकार के सोने के बने होते है, जिन्हें एक शनील के चमकदार कपड़े के ऊपर पिरोया जाता है। मुख्यतरू पोची अलग अलग वजन के आधार पर अपनी सुविधा के अनुसार लोग बनवाते है। यह २ से ५ तोला तक के वजन की बनती है। अधिक तोले की पोची के दाने बड़े और कम तोले की पोची के दाने छोटे आकार होते हैं। इसी के साथ-साथ इसमें इन दानों को पिरोने के और उसमें उकेरे गए डिजाइनों के आकारों में भी भिन्नता पायी जाती है। पोची के महत्व मुख्यतः शादी जैसे समारोह में देखने को मिलते है। माना जाता है कि जब लड़की की शादी होती है तो उसमें बनने वाले आभूषणों में से एक पोची भी होता है। पोची का स्थान बहुत महत्वपूर्ण होता है, कन्यादान के समय इसे लड़की को गहनों के साथ पहनाया जाता है।

पिछोड़ा या रंगवाली

भारत में विविधताओं से भरी संस्कृतियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है ,और इसी प्रकार उत्तराखंडी लोक संस्कृति में कुमाउनी समुदाय के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के परिधान देखे जा सकते है। जो की कुमाउनी संस्कृति में एक विशेष महत्व रखती है। इसी शृंखला में कुमाऊ की शान पिछोड़ा एक बहुत महत्वपूर्ण परिधान माना जाता है। स्थानीय भाषा में रंगवाली भी कहा जाता है।

पिछौड़ा का महत्व

शादी नामकरण व्रत त्यौहार और विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में यह पारम्परिक परिधान महिलाओं के द्वारा पहना जाता है। इन्हे खास तोर पर लहंगे व साड़ियों के साथ पहनने का प्रचलन है। मुख्य रूप से सुहागन महिलाओं के सुहाग का प्रतीक माना जाता है । वर्षाे से चली आ रही परम्पराओ के अनुसार कही स्थानों पर इसे शादी के समारोह में भेट किया जाता है। यह कुमाउनी संस्कृति का एक अभिन्न अंग कहा जाता है। गहरा पीला और सुर्ख लाल रंग से सुनहरे गोटे द्वारा उकेरी गयी सुन्दर किनारी से सुसज्जित रंगीला पिछोड़ा रूप में जाना जाता है। स्वस्तिक, ॐ और शंक की आकृतियों से सुसज्जित एक प्रकार का दुप्पट्टा होता है । इसका लाल रंग विवाहिक जीवन की संयुक्तता , अच्छे स्वास्थ्य वं सम्पन्नता का प्रतिक माना जाता है। और पीला तथा सुनहरा संसार से जुड़े दर्शन को दर्शाता है। पिछोड़ा में पहले स्वस्तिक को बनाया जाता था, और फिर इसमें शंख , घंटा , व सूर्य आदि की आकृतिया भी बनाई जाने लगी। ऐसी मान्यता है की ये आकृतिया शुभ संकेतक होते है । कहते है की पहले पिछोड़ा अर्थात रंगवाली को घर पर ही मलमल या सूती कपडे में तैयार किया जाता था। इसकी रंगाई छपाई और इसमें गोटा लगाने की सभी प्रक्रियाएं घर पर ही होती थी। परन्तु अब आधुनिकता के चलते और समय के आभाव में यह बाजारों में अब बना हुआ मिलता है। इसे देवी की चुनरी के सामान ही पवित्र मानते है। और इसी रूप में इसका आदर होता है।

सारे परिधानों में पिछौड़ा सर्वाेच्च है तभी तो तीज त्योहार और शुभ कार्य में देवी को भी चढ़ाया जाता है। शुभ काम में पिछौड़ा गणेश पूजा के दिन से पहना जाता है। पिछौड़ा कुमाऊंनी संस्कृति की की एक मुख्य पहचान है। एक सुहागन की पहचान और मंगल का प्रतीक माना जाता है। इसी कारण किसी युवती को शादी के दिन ही पहली बार पिछौड़ा पहनाया जाता है। जानकार बताते हैं कि पहले के समय में पिछौड़ा दुल्हन को ही पहनाया जाता था। जिससे वही आकर्षित अवं सबसे अलग लगे । अब शादी से लेकर कोई भी शुभ काम में परिवार की सभी महिलाएं इसे पहनती हैं। अनिवार्य है। रंगवाली पिछौड़ा की एक अन्य मुख्य विशेषता यह है कि इसे विधवाओं द्वारा भी डाला जा सकता है, जो सामाजिक परंपराओं के अनुसार हैं, उन्हें रंगीन वस्त्र पहनने के लिए नहीं माना जाता है। स्वास्तिक देवी और देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। यह सभी धार्मिक अनुष्ठानों में किसी न किसी रूप में तैयार किया जाता है। यह श्कर्मयोगश् को दर्शाता है। आगे की ओर इशारा करती इसकी चार भुजाएं आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। केंद्र में, एक स्वस्तिक ’और चार चतुर्थांश में स्वस्तिक, सूर्य, शंख (क्रॉन्च शेल), ए बेल के साथ’ ओम ’और देवी को बनाया जाता है।स्वस्तिक कुछ ज्यामितीय चित्र या पत्तियों और फूलों को खींचकर बनाया जाता है और फिर छोटे डॉट्स से घिरा होता है। फिर बड़े आकार के डॉट्स सभी पर मुद्रित होते हैं। यह मुद्रण एक सुंदर सीमा से घिरा हुआ है। सीमा के बाद, फीता और किनारी या झालर को सिलाई करने के लिए अधिक रंगीन, आकर्षक और जीवंत बनाया जाता है।

रंगवाली पिछौड़ा में बनने वाले सवस्तिक के चिन्ह का भी महत्व होता है। इसके चारो चतुरतांश के अलग अलग महत्व है स्वस्तिक का पहला चतुर्थांश सूर्य, महान शक्ति वाला देवता है। पुत्रों की भलाई के लिए सूर्य की पूजा की जाती है। दूसरा चतुर्थांश घरों में समृद्धि और सभी पास और डेरों की भलाई के लिए, तीसरे चतुर्थांश में एक शंख है जिसे पूजा के दौरान उड़ा दिया जाता है और सभी बीमार शगुनों को समझा जाता है कि वे इस ध्वनि से डरें और आसपास किसी को भी नुकसान न पहुंचाएं। अंतिम चतुर्थांश में एक बेल है जिसका उपयोग पूजा में भी किया जाता है। यह सफेद कपड़े के ऊपर बनाया जाता है, सफेद का अर्थ शांति और पवित्रता से है। रंगों में प्रयोग होने वाला बतासा कुमाऊं की मिठास घोलता है। बुजुर्ग महिलाओं के सानिध्य में नई पीढ़ी इस कला को सीखती थी। हाथ से पिछौड़ा बनाना कोई आसान काम नहीं है। अल्मोड़ा के पिछौड़े ही सबसे अच्छे माने जाते हैं। सहालग में पिछौड़ों की मांग बढ़ जाती है। भले ही बाजार में प्रिटेंड पिछौड़े खूब बिकते हैं पर कुमाऊंनी संस्कृति से लगाव रखने वाले लोग हाथ से बना पिछौड़ा ही पसंद करते हैं। पिछोड़ा को पर्वतीय क्षेत्रों के साथ साथ शहरी तथा विदेशो में रहने वाले पर्वतीय परिवार भी बहुत अधिक पसंद करते है। तथा अपने मांगलिक कार्यक्रमों में इसको अवश्य ही शामिल करते है। पिछौड़ा शब्द से ही परम्परा और लोक पक्ष जुड़ा है। इसमें सुहाग और शुभ से संबंधित चीजें उकेरी होती हैं। पिछौड़ा पहनने और इसे बनाने का लिखित तौर पर कुछ नहीं है। यह ऐसी परंपरा है जो हमें विरासत में मिली है।

गालोबांध

गालोबांध को श्गलाबंधश् के नाम से भी जाना जाता है। यह एक हार का आभूषण है। यह पहाड़ी (पहाड़ी क्षेत्रों) संस्कृति के प्रमुख आभूषणों में से एक है। इसे ष्ग्लोबबैंडष् या ष्गलुबांधष् के नाम से भी जाना जाता है। नाम से पता चलता है कि नाम गर्दन के चारों ओर बंधा हुआ है और मुख्य रूप से विवाहित महिलाओं द्वारा पहना जाता है। इस अभिजात वर्ग की गर्दन का टुकड़ा कुमाउनी, गढ़वाली, भोटिया और जौनसारी महिलाओं द्वारा दिया जाता है। गालोबांध की विशिष्टता यह है कि यह एक लाल बेल्ट पर डिज़ाइन किया गया है, जिस पर सुनहरे चैकोर आकार के आभूषण के टुकड़ों को एक धागे की मदद से खूबसूरती से व्यवस्थित किया गया है। एक चोकर की तरह गर्दन के चारों ओर बंधी, एक गलोबंद सोने का बना होता है और कुमाऊँ, गढ़वाल, भोटिया और जौनसार की विवाहित महिलाओं द्वारा पहना जाता है। इसे एक लाल बेल्ट पर डिज़ाइन किया गया है, जिसे एक धागे की मदद से चैकोर सोने के ब्लॉक पर व्यवस्थित किया गया है।

सोने के ये पारंपरिक आभूषण आज भी उत्तराखंड के मूल निवासियों में लोकप्रिय हैं। मुख्य रूप से एक सजावटी बेल्ट में सुंदर सोने के सुंदर आकार के विभिन्न आकार हैं। ग्लैंड ज्वेलरी की खासियत यह है कि इसे सोने की कारीगरी पर लाल गुलाबी या नीले रंग के वर्क बेल्ट के साथ डिजाइन किया गया है। यह मुख्य रूप से स्वर्ण चक्र के दौर से बना है और छोटे पत्ते पत्तियों को चुपचाप धागे के साथ व्यवस्थित किया जाता है। हालांकि, यह आभूषण मुख्य रूप से ग्रामीण परिवेश की विवाहित महिलाओं द्वारा पहना जाता है। लेकिन आज शहर की महिलाएं भी वर्तमान गहनों में इसे एक महत्वपूर्ण स्थान देती हैं। प्राचीन समय में, यह एक प्रकार से विवाहित महिलाओं की एक विशेष पहचान भी मानी जाती थी। विशेष रूप से त्योहारों, त्योहारों और शादियों जैसे पवित्र त्योहारों की महिलाओं की सामूहिक गतिविधियों में। हालाँकि, विभिन्न अंतरालों के समावेश के कारण, इसमें बहुत सुधार और भिन्नता नहीं है। यही कारण है कि यह अपने कई नए डिजाइन बाजारों में आया है। लेकिन मूल रूप में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

गालोबांध का महत्व

हालांकि एक सुंदर आभूषण होने के नाते यह फैशन से बाहर हो रहा है क्योंकि आधुनिक आभूषण ने बाजारों पर कब्जा कर लिया है, जिससे पारंपरिक आभूषणों के लिए कोई जगह नहीं है। जबकि यह आभूषण ग्रामीण महिलाओं द्वारा बहुत पसंद किया जाता है, यह शहरों में रहने वालों के बीच ज्यादा लोकप्रिय नहीं है। यह उत्तराखंडी सोने के गहने हैं, जो पहाड़ी क्षेत्रों की महिलाओं द्वारा पहने जाते हैं।

हंसुली

हंसुली को गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी और भोटिया महिलाओं द्वारा पहना जाता है । हँसुली को गढ़वाली में श्खगवालीश् के नाम से भी जाना जाता है, यह एक लोकप्रिय आभूषण है, जिसे गले में पहना जाता है । यह अमूल्य आभूषण त्योहारों, शादियों, मेलों, सामाजिक समारोहों और महत्वपूर्ण पारिवारिक कार्यों के दौरान पहना जाता हैं । यह भव्य आभूषण का टुकड़ा जो अमीर लोगों द्वारा सोने में पसंद किया जाता है और कम अमीर या गरीब द्वारा चांदी में । हंसुली को एक क्लासिक आभूषण का टुकड़ा माना जाता है जो पहाड़ी महिलाओं की सुंदरता को चार चाँद लगाता है।

लेकिन इस आधुनिक युग में, हंसुली का आकर्षण फीका पड़ रहा है क्योंकि लोग कीमती आभूषणों की ओर आकर्षित हो रहे हैं । यदि यह जल्द ही जारी रहेगा तो पारंपरिक आभूषण अपनी इकाई खो देंगे क्योंकि कोई भी इसे नहीं पहनेगा।

हंसुली का महत्व

हँसुली एक प्रकार का गले में पहने जाने वाला आभूषण है. यह महिलाओ के प्रिये आभूषणों में से एक होता है और एक प्रकार का कठोर हार जैसा होता है , यह किनारों से पतला और बीच में से मोटा होता जाता है। प्राचीन काल में बड़े बुजुर्गों द्वारा बच्चे के जन्म पर दिया जाता था, और विवाहित महिलाओं द्वारा भी पहना जाता होता हैएक प्रकार से छोटे बच्चों को उपहार के रूप में दिया जाता था, जिसे की हम पारंपरिक प्रेम का प्रतीक कह सकते है। मुख्यता यह चांदी का होता है, परन्तु सम्पनता के दौर में कुछ लोग इसे सोने का भी बनवाते है। और इसमें बहुत से डिजाइन आ गये है. आधुनिक दौर में भी बहुत तरीके के डिजाइन आ तो गये है लेकिन इसको पहनने का रिवाज लगभग खत्म सा हो गया है। प्राचीन समय में अधिक पहना जाता था। चांदी से बना ये जेवर काफी वजनी होता है। लोग अपनी सुविधा के मुताबिक कम या ज्यादा वजन का बनवाते हैमहिलाओं और बच्चों के द्वारा पहने जाने वाली हसुली मैं अलग तरीके के डिजाइन और अलग तरीके के महत्व होता है।

इसमें बच्चों को पहनाए जाने वाली हँसुली का वजन कम होता था। यह बच्चों के जन्म के समय भी दादा दादी नाना नानी द्वारा दिया जाता था और इनका वजन कम होता है और इसमें डिजाइन के साथ घुंगरू भी लगे होते है. मुख्यत यह चांदी का होता है,

यह विवाहित महिलाएं अपने गले में पहना जाता है। यह विवाहित महिलाओं द्वारा गले में पहना जाता है और इसका वजन बच्चो को पहनाए जाने वाली हँसुली से ज्यादा होता है, जो महिलाएं पहनती है उसका ज्यादा होता है. उसका वजन लगभग 3 तोला तक होता है। मुख्यत यह चांदी का होता है. आजकल यह सोने से भी बनाये जाते है।

बुलाख

बुलाख पहाड़ी महिलाओं द्वारा नाक में पहने जाने वाले आभूषणों में से एक है। पारंपरिक रूप से यह गढ़वाल, कुमाऊं और जौनसार की नवविवाहित महिलाओं द्वारा पहना जाता है। राजशाही के समय से ही बुलाख उत्तराखंड की महिलाओं का विशेष आभूषण था। शादी व त्योहारों के अवसर पर महिलाएं इन्हें विशेष तौर पर पहनती थी, बुलाख नाक के बीचो बीच पहनी जाती है।

बुलाख का महत्व

बुलाख एक उत्तम आभूषण है ,बुलाख को नाक के बीच के हिस्से को छेद कर पहना जाता है। यह अंग्रेजी के U आकार का होता है। सभी बुलाख की अलग-अलग लम्बाई होती है। कुछ बुलाख की लम्बाई तो ठुड्डी के नीचे तक की होती है। परन्तु, महिलाएं अपने सामथ्र्य के अनुसार इनकी लम्बाई तय कर सकती है। यह विवाह के समय, दुल्हन के परिवार द्वारा उपहार में दिए गए आभूषणों में से एक माना जाता था। जिस प्रकार नथुली को दुल्हन विवाह में धारण करती थी और उसका महत्व बहुत अधिक मन जाता रहा है, उसी प्रकार से बुलाख को भी बहुत महत्त्व दिया जाता था। परन्तु इसका धीरे धीरे चलन समाप्त हो गया है। नथुली को नाक उलटे तरफ और बुलाख को नाक के बीच में पहना जाता है। आज के आभूषणों के अपेक्षा बुलाख काफी भारी होते थे। अब इसे पुराने चलन के रूप में माना जाता है। आमतौर पर सोने या चांदी में विस्तृत आकृति के साथ खुदा होता है। कुमायूँ, जौनसार और गढ़वाल क्षेत्र की महिलाओं के लिए बुलाख को आवश्यक माना जाता था, लेकिन इन दिनों वे फैशन से बाहर हो गए हैं। प्राचीन समय में बुलाख को प्रतिभाशाली सुनारों के द्वारा डिजाइन किया जाता था, जो इस पर जटिल रूपांकनों को उकेरते थे। ज्यादा वजनी बुलाख में जटिल कारीगरी हुआ करती थी, और समान्य दिखने वाली बुलाख को सामान्य आकृतिया ही उकेरी जाती थी। पहले के समय में इन आभूषणों (बुलाख) का काफी प्रचलन था, लेकिन धीरे-धीरे इसका प्रचलन कम हो गया है। एक प्रकार से बुलख लुप्तप्राय ही हो गयी है।

ढोल और दमाऊं

ढोल और दमाऊं उत्तराखंड के सबसे प्राचीन और लोकप्रिय वाद्य यंत्र हैं। इनको ष्मंगल वाद्यष् के नाम से भी जाना जाता है। वे शुरू में युद्ध के मैदान में सैनिकों के बीच उत्साह पैदा करने के लिए इस्तेमाल किए गए थे। युद्ध के मैदानों से, ढोल दमाऊं लोगों के सामाजिक जीवन में प्रवेश करते चले गए। पहाड़ के शुभकार्य उत्तराखंड के वाद्ययंत्र ढोल-दमाऊं की गूंज के बिना अधूरे होते थे। 15वीं शताब्दी में ढोल को भारत में लाया गया था। ढोल पश्चिम एशियाई मूल है। आईन-ए-अकबरी में पहली बार ढोल के बारे में उल्लेख किया गया है। इसका अर्थ है कि सोलहवीं शताब्दी के आसपास गढ़वाल में ढोल की शुरुआत की गई थी। ढोल दमाऊं वादक को औजी, ढोली, दास या बाजगी आदि पारंपरिक नामों से भी कहा जाता है। औजी वास्तव में भगवान शिव का नाम है।एक पहाड़ी राज्य होने के नाते, उत्तराखंड के नाम में कई प्रशंसाएँ हैं। चाहे हम इसकी विविध संस्कृति, परंपराओं, संगीत, कला रूपों और यहां तक कि इसके उपकरणों के बारे में बात करते हैं जिन्होंने पहाड़ियों की गूँज को उनके लकड़ी के ढांचे के अंदर बसाया है।

ढोल और दमाऊं की आकारिकी

ढोल दो तरफा ड्रम है। ढोल और दमाऊं को बजाने के लिए दो लोगों की जरूरत होती है। जैसे सभी को सहायक की जरूरत है वैसे ही ढोल दमाऊं भी एक-दूसरे के सहायक हैं। यह एक तरफ से लकड़ी की छड़ी और दूसरी तरफ से हाथ से बजाया जाता है। ढोल ताम्बे और साल की लकड़ी से बना होता है। इसके बाएं तरफ बकरी की और दाएं तरफ भैंस या बाहरसिंगा की खाल होती है। जबकि दमाऊं, ताम्बे का बना हुआ एक फुट व्यास तथा 8 इंच गहरे कटोरे के सामान होता है। इसकी खाल मोटे चमड़े की होती है।हमारे उत्तराखंड में ३३ करोड़ देवी-देवता निवास करते हैं। दमाऊं भगवान शिव का और ढोल ऊर्जा का रूप है। ऊर्जा के अंदर अपनी शक्ति है। ढोल और दमाऊं का रिश्ता पति-पत्नी की तरह जैसे शिव-शक्ति जैसा है।

ढोल और दमाऊं का महत्त्व

ढोल को प्रमुख वाद्य यंत्र में इसलिए शामिल किया गया क्योंकि इसके माध्यम से देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। कहा जाता है, ढोल दमाऊं प्रार्थना के दौरान अपने भगवान और देवी-देवताओं को बुलाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला पारंपरिक वाद्य यंत्र है। पहले के समय में, पहाड़ में होने वाली शादियों के यह अभिन्न अंग हुआ करते थे। मंगनी और शादी के दौरान ढोल दमाऊं बजाकर लोग अपनी खुशी ज़ाहिर करते हैं। इनकी गूंज से मेहमानों का स्वागत किया जाता है। खास बात यह होती है कि शादी में दोनों पक्षों वर और कन्या के अपने अपने ढोल वादक होते हैं। वर पक्ष वाले जब घर से निकलते हैं तो ढोल-दमाऊं बजा कर ख़ुशी का इज़हार किया जाता है। ठीक उसी तरह, कन्या पक्ष के ढोल वादक अपने यहां के अतिथियों का ढोल से स्वागत करते हैं।

रात होने पर ढोल-दमाऊं के जरिये कुछ विशेष ताल बजाते हैं।ढोल दमाऊं में कई तरीके की ताले बजायी जाती हैं। उन तालों के समूह को ढोल सागर भी कहा गया है। ढोल सागर में १२०० श्लोक लिखे गये हैं। इन तालों के माध्यम से वार्तालाप व विशेष सन्देश का आदान-प्रदान भी किया जाता है। अलग अलग समय पर अलग-अलग ताल बजायी जाती है, जिसके माध्यम से इस बात का पता चलता है कि कौन-सा संस्कार या अवसर है। जो देवी-देवता अदृश्य हैं उन्हें जागृत करने के सबसे पहले बजाये जाने वाला ताल, मंगल बधाई ताल है। धुयाल ताल मंदिरों में बजायी जाती है। यह भगवती को प्रकट करने के लिए बजायी जाती है। धुयाल ताल से अभिप्राय दैत्य-संहार से भी है। माना जाता है,देवी दुर्गा ने धुयाल ताल में 1600 राक्षसों का वध किया है।

शादी और हल्दी हाथ में, ( एक समारोह जिसमें दुल्हन या दूल्हे को हल्दी लगाई जाती है ) औजी एक अलग प्रकार की ताल बजाते है जिसे बधाई कहा जाता है। बारात प्रस्थान करते समय रहमानी ताल बजायी जाती है व रुकी हुई बारात के लिए सब्द ताल बजायी जाती है। छोटी नदी या नाले पार करते समय गढ़चल ताल बजायी जाती है. पांडव नृत्य के लिए पांडो ताल बजायी जाती है। ढोल और दमाऊं उत्तरांचल के पहाड़ी समाज की आत्मा रहे हैं।जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से लेकर जंगल तक कोई भी संस्कार या सामाजिक गतिविधि इनके बिना अधूरी है। औजी प्रायरू समाज के निम्न वर्ग के लोग होते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी पूरी श्रद्धा और उल्लास से इस दायित्व को निभाते आ रहे हैं।हर महीने की शुरुआत में यह अपने क्षेत्रों के गाँवो के घरों में जाकर ये लोग ढोल दमाऊं बजाते हैं। इसके बदले में लोग इन्हें मदद के लिए गेहूँ, चावल, दाल, नमक, मसाले, पैसे आदि देते हैं।

अतः उत्तराखंड में जन्म से लेकर मृत्यु तक ढोल दमाऊं और औजियों की अहम भूमिका रही है।यद्यपि इस जातिगत वर्ण-व्यवस्था में काफी बदलाव आ चूका है, लेकिन उत्तराखंड में आज भी उच्च जाति के अधिकांश लोग इन निचली जाति यानी औजियों की छुई हुई कोई भी चीज़ नहीं खाते। इन्हे गाँव और समाज से भी अलग रखा जाता है। अतः यह आज भी पूर्णत उपेक्षित हैं। वर्तमान समय में भी हमारे औजी समाज की स्थिति काफी दयनीय है। आज उनके पास अपने जीवन यापन के लिए कठोर संकट पैदा हो गया है। आज शादी जैसे मांगलिक कार्यों में भी इनका महत्व काम हो गया है। लोग आधुनिक वाद्य यंत्रों को ज़्यादा बढ़ावा दे रहे हैं। इसमें ढोल दमाऊं का अस्तित्व गंभीर खतरे में है। इसके साथ ही, औजी समाज की आजीविका पर भी इसका असर पड़ रहा है। यह लोग आर्थिक और सामाजिक संकट से परेशान हैं और इन वाद्य यंत्रों का परित्याग कर रहे हैं। लोगों के गाँव से शहरों की ओर पलायन करने से भी उनके जीवन पर असर पड़ रहा है। इनमें से कुछ शराब के नशे की चपेट में भी आ रहे हैं, जिसकी वजह से इनके बच्चे व महिलाओं का जीवन भी प्रभावित हो रहा है। अतः जहाँ एक ओर यह वाद्य यंत्र खत्म होते जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर इन औजियों की जातियों के लुप्त होने की आशंका भी बढ़ती जा रही है।उत्तराखंड के प्राचीन ढोल वादक ढोल नगाड़ों के प्रति अगाध समानता रखते हैं। इसने शुरुआत से ही अपना आकर्षण बनाए रखा है। हमें किसी तरह इन वाद्य यंत्रों और इनके बजाने वाले कलाकारों का संरक्षण करना पड़ेगा। अन्यथा, हम अपनी पहाड़ी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा खो देंगे। अब उत्तराखंड सरकार भी इसे बढ़ावा देने के लिए कदम उठा रही है।

Darma Valley

A lesser-known valley, the picturesque Darma Valley (or Darma Ganga Valley) is nestled between two other valleys, namely the Kuthi Yangti Valley in the east and Lassar Yangti Valley in the west.

Munsyari

Narayan Aashram

Pithoragarh

Chaukori